Monday, January 17, 2011

इंसानियत का खून करता सियासत !!

कुछ भी न रही कीमत इंसानों के खून का,
जा-ब-जा फ़क़त कत्ल का इक दौर है !
कत्ल कराके घूम रहे हैं जो हर तरफ ,
वही कहते हैं कि कातिल कोई और है!
होती थी जहाँ इबादतें इंसानियत की ,
आज वो जगह हैवानियत का ठौर है! 
फिक्र-ए-वतन सता रही है जिन्हें ,
उनकी बयानबाजी भी काबिल-ए-गौर है !
इन्साफ की सोच भी बेईमानी है 'अरविन्द' ,
कातिलों को ही जब मुंसिफ बनाने का दौर है ! 

कौन कहता है कि ये गणतंत्र है ?

कौन कहता है कि ये गणतंत्र है ?
फैला जबसे भेड़ियों का तंत्र ये !
तरुणाई आ फँसी चंगुलों में देखो,
सुन लिया वादों का जबसे मंत्र ये !

सुबह का सूरज जलाने लग गया,
शाम दिखाता है तांडव मौत का !
हम बुझाते प्यास अपनी आंसुओं से,
खून उनके प्यास को है चूमता !

माताएं सूनी गोद देखकर रो रहीं,
लुट रही अस्मत हमारी बहनों की!
उजाड़ रहा है देखो आशियाँ रात दिन,
फिक्र उनको है सताती खंडहरों की ! 

आँख रहते भी हम अंधे हो चले, 
देखो कैसा राक्षसी ये तंत्र है ?
कौन कहता है कि ये गणतंत्र है?
फैला जबसे भेड़ियों का तंत्र ये  !      

Friday, January 14, 2011

जन्मदिन

दिन बीतता है, रातें बीतती हैं. 
बसंत की परिणति हो जाती है बरसात के रूप में,
समय का पहिया घूमता है और घूमता ही चला जाता है,
बदलती जा रही हैं कैलेंडर की तारीखें अपनी निरंतरता लिए, 
परिवर्तन अच्छे के लिए ही होता है,
बुरे विचारों का बदलना अच्छा होता है व्यक्ति, समाज और देश के लिए.
परन्तु
अच्छे विचारों का बदल जाना दुखदायी होता है व्यक्ति, समाज और देश के लिए.
जन्मदिन आते हैं,  चले जाते हैं 
पर
अपने पीछे छोड़ जाती हैं कुछ यादें
जिसको संबल बना इन्सान
भविष्य के मंजिल तक की दूरी तय करने की सोचता है .
आने वाला कल एक नई मुस्कान और एक नया उमंग लेकर आये
और
राष्ट्र-जीवन को चंहु ओर से सुवाषित करता रहे सदैव.

Thursday, January 6, 2011

क्या आज का मानव सच में मजबूर है ?


क्या आज का मानव सच में मजबूर है ???

अज्ञानता व ऐश्नाओं के वशीभूत हो मानव  
भटक रहा है चंद चांदी के चमकते सिक्कों की तलाश में,  
छीन ली है जिसने उससे  
उसका सुकून और उसकी मानवता ! 
सुकून और मानवता विहीन मानव  
क्या मानव रह गया है
चेतनाशून्य और आत्मविस्मृत मानव !!  
अपनी इस अवचेतन अवस्था में वह 
दास नहीं तो क्या ?? 
विद्रोह ! 
विद्रोह तो वह करता है जो चैतन्य होता है,   
धिक्कारती हो जिसे उसकी आत्मा ?
परन्तु  
आत्मविस्मृति के दौर से गुजरने वाला मानव  
और  
उससे निर्मित समाज  
क्या कभी विद्रोह या आन्दोलन कर पायेगा ?? 
आखिर  
इसकी जड़ में क्या है ?
जानना होगा जड़ को
समझना पड़ेगा मूल को
कहीं इन सबके मूल में भूख तो नहीं
यह बात दीगर है कि 
भूख की जाति क्या है ?
जाति !! 
सुना था मानव की जाति के बारे में,  
परन्तु ये भूख की भी जाति होने लगी क्या ?? 
हाँ 
भूख की भी जाति होती है! 
जिनकी भूख दो रोटी की होती है 
वह जवान होती है कठिन उपवासों के बीच पलकर 
और  
देखती हैं आँखें फाड़ फाड़कर. 
परन्तु  
जिनकी भूख आकाश कुसुम की होती है
धरती पर स्वर्ग की होती है  
वह परवान चढ़ती है वातानुकूलित शीश महलों में
देखती हैं आँखे तरेर कर  
और रचती हैं कुचक्र  
दो रोटी के भूख वालों की जिंदगी को निगलने का. 
भूख के सताए लोगों ने  
ओढ़ ली है चादर अज्ञानता का, मजबूरी का   
और 
ओढ़कर चैतन्य शून्य हो गए से लगते हैं. 
सच क्या है यह तो वही जाने 
जो अज्ञानी होने का नाटक कर रहे हैं
अवचेतन  होने  का  ढोंग  कर  रहे  हैं

Arbind Pandey says

Welcome to all Hindustani